एक पहलवान ने केंद्रीय राजनीति में कदम रखा, जिसने राजनीति के बदलते चलन के साथ समझदारी से बदलने का फैसला किया और आखिरकार राजनीति के एक कुशल खिलाड़ी की तरह एक अलग पार्टी बनाकर उत्तर प्रदेश की राजनीति के रवैये को बदलने में कामयाब रहा।
22 नवंबर 1939 को जन्म-
राजनीति एक खेल है सांप सीढ़ी का खेल। जहाँ किस खिलाड़ी की जीत होगी और किसकी हार इसका अनुमान लगाना नामुमकिन सा प्रतीत होता है। हर साल कितने नए खिलाड़ी इस खेल में हिस्सा लेते हैं, चुनाव प्रचार पर लाखों करोड़ों रुपये खर्च होते हैं लेकिन कौन जीतेगा यह कोई नहीं कह सकता। ऐसा ही एक चौंकाने वाला चुनाव 1967 का विधानसभा चुनाव था जब पेशे से पहलवान एक युवा लड़के ने अपने जीवन का पहला चुनाव लड़ा था। लड़के का नाम मुलायम सिंह यादव था और वह जिस सीट से चुनाव लड़ रहा था उसका नाम जसवंतनगर था। उनके प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस नेता लाखन सिंह यादव थे। जिनके सामने मुलायम का अनुभव और राजनीति करने का हुनर बराबर था।
जहां एक तरफ लखन सिंह बड़ी-बड़ी रैलियां कर रहे थे, वहीं मुलायम लोगों का समर्थन पाने के लिए गांव-गांव घूम रहे थे। कांग्रेस को यकीन था कि इस सीट पर उनकी जीत पक्की है। क्यूँकि कौन एक अनुभवहीन लड़के को वोट देगा, जिसे चुनाव प्रचार कैसे करते है यह भी नहीं आता था।चुनाव प्रचार कैसे करते है यह भी नहीं आता था। लेकिन चुनावों में कांग्रेस की हार और मुलायम की जीत ने साबित कर दिया की चुनाव जीतने के लिए लोगों का विश्वास जीतना ज़रूरी है, ना की करोड़ो रूपए खर्च करना ।
“यह मुलायम का राजनीति में केवल पहला कदम था, अभी एक लंबा रास्ता तय करना था। कांग्रेस विरोधी राजनीति से शुरू हुआ उनका यह रास्ता कितनी दूर तक जाएगा इसकी भविष्यवाणी कर पाना मुश्किल था।”
विधायक बनने के बाद मुलायम राजनीति में एक के बाद एक सफलता की सीढ़ियां चढ़ते गए। चाहे वह उनका सौभाग्य मान लो या उनकी बुद्धिमानी, वह पहले राम मनोहर लोहिया, चौधरी चरण सिंह और वी. पी. सिंह जैसे नेताओं के बेहद करीबी रहे। जिन्होंने अपने ही दौर में राजनीति को नया मोड़ दिया था।
मुलायम सिंह ने राजनीति को बदलते हुए देखा। चाहे वह राम मनोहर लोहिया के दौर में कांग्रेस विरोधी राजनीति की शुरुआत हो, इंदिरा गाँधी के एक फैसले ‘इमरजेंसी’ के कारण उनकी चुनावों में हार हो, कांग्रेस के विरोध में बना जनता दल का गठबंधन हो, जनता दल के मध्य विवादों का सिलसिला हो, पहले मोरारजी देसाई और फिर चौधरी चरण सिंह की सरकार का बनना और गिरना हो, राजनीति में इंदिरा की वापसी हो, इंदिरा गांधी की हत्या से राजनीति में आया भूचाल हो, राजीव गांधी का सत्ता में आगमन हो, बोफोर्स घोटाले के कारण कांग्रेस पर उठते सवाल हो, वी. पी. सिंह का प्रधानमंत्री बनना हो, उनकी सरकार गिरना हो या राजीव गांधी की मृत्यु के कारण कांग्रेस की सत्ता में वापसी हो, मुलायम सिंह इन सभी घटनाओं के साक्षी बने ।
जब वीपी सिंह का प्रधान मंत्री के रूप में कार्यकाल (343 दिन) समाप्त हुआ, तो जनता पार्टी आपसी मनमुटाव के कारण दो भागों में विभाजित हो गई। मुलायम ने समाजवादी जनता पार्टी का समर्थन किया, जिसके नेता चंद्रशेखर थे। चंद्रशेखर भी केवल 223 दिनों के लिए ही गद्दी संभाल सके। जिसके बाद कांग्रेस फिर से सरकार में आई और पी.वी. नरसिम्हा राव मंत्री बने ।
“राजनीति के इस बदलते दौर ने मुलायम को भी राजनीति का जबरदस्त खिलाड़ी बना दिया है। जिसे घटनाओं को मुद्दा बनाना बखूबी आता था। 1992 में मुलायम सिंह ने अपनी पार्टी बनाई जिसका नाम समाजवादी पार्टी रखा गया और केंद्रीय नहीं बल्कि उत्तर प्रदेश की राजनीति की ओर केंद्रित किया।”
1992 में उत्तर प्रदेश भी परिवर्तन के दौर से गुजर रहा था। बाबरी मस्जिद को गिरा दिया गया था, जो उनकी धर्मनिरपेक्ष राजनीति के खिलाफ था। और मनमोहन सिंह द्वारा बाजारों में किए गए सुधारों के परिणामस्वरूप, निजीकरण को प्रोत्साहित किया जा रहा था, जो उनकी समाजवादी विचारधारा के खिलाफ था।
मुलायम ने बाबरी मस्जिद मुद्दे को हथियार की तरह इस्तेमाल किया। जिससे वह मुस्लिम आबादी का समर्थन पाने में भी सफल रहे और समाजवादी पार्टी चुनाव जीतने में सफल रही। सरकार में आते ही मुलायम सिंह का समाजवाद कहीं पीछे छूट गया। यूपी में बड़ी निजी कंपनियों के निवेश को बढ़ावा दिया गया। अमिताभ बच्चन को उत्तर प्रदेश का ब्रांड एंबेसडर बनाया गया और बड़े उद्योगपति यहाँ निवेश करने लगे।
मुलायम इस पार्टी के कर्ताधर्ता बने और उत्तर प्रदेश के भी ।वह 3 बार मुख्यमंत्री का चुनाव जीतने में सफल रहे, एक बार जनता दल से (5 दिसंबर 1989 से 24 जून 1991) और 2 बार समाजवादी पार्टी से 4 दिसंबर 1993 से 3 जून 1995 और 29अगस्त 2003 से 13 मई 2007)।
हर राजनीतिक दल की तरह उनकी पार्टी पर भी कई दाग लगे। जिसमें से एक दाग 1994 में लगा जब उत्तराखंड को अलग करने की मांग करने वाले लोगों पर गोलियां चलाई गईं और महिलाओं के साथ दुष्कर्म किया गया और इस घटना की कई पीड़िताएं लापता हो गईं। यह घटना ना केवल पार्टी पर बल्कि मुलायम सिंह की छवि पर भी कभी ना धुलने वाला दाग बन गई।
समाजवादी पार्टी को हमेशा मुसलमानों के समर्थक के रूप में देखा जाता था। लेकिन 2013 ( जब मुआयम सिंह के बेटे अखिलेश यादव मुख्यमंत्री) के मुज़फ्फरनगर के दंगों ने उस छवि को बदल दिया ।
लंबे समय तक पार्टी में मुलायम सिंह ही सबकुछ थे। उनका फैसला आखिरी फैसला माना जाता था । यहाँ तक की अखिलेश सिंह के काल में अधिकतर फैसले वही लिया करते थे। आज उनका परिवार उत्तर प्रदेश के सबसे शक्तिशाली परिवारों में से एक है। जो कि केवल और केवल मुलायम सिंह के कारण ही हो पाया है। ~शिवानी शर्मा